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संसार में अच्छी, बुरी, हर प्रकार की घटनायें हुआ करती है। उस दिन राजकुमार दिलीप का जन्मदिवस था। उसी दिन उन्हें युवराज पद से विभूषित किया गया। उस खुशी में, राज्य के एक कलाकार ने, लकड़ी का एक उड़ने वाला घोड़ा भेंट किया। वह घोड़ा, प्राचीन युग की कला का एक नमूना था।
घोड़े की प्रशंसा सुनकर राजकुमार को कौतूहल तो हुआ ही, साथ ही, वे उतावले भी हो गये और उसकी विशेषतायें जाने बिना ही, घोड़े पर बैठकर उड़ गये। अपनी जिन्दगी जोखिम में डाल दी।
परन्तु विधाता का विधान कुछ और ही था। अनेक आपतित्तयों का सामना करते हुए, अन्त में राजकुमार रूपकुमारी के महल की आकाशी पर जा उतरे। रूपकुमारी के मेहमान बने परिचय बढ़ता गया और दोनों एक दूसरे के प्रेमपाश में बँध गये।
परन्तु इन दोनों का प्रेम बंधन, महामंत्री की आँखों का काँटा बन गया। महामंत्री की नीयत थी, कि अपने अर्ध-पागल पुत्र के साथ रूपकुमारी का ब्याह कराकर, राज्य के अधिकारी बन बैठें। पर, विधाता को यह पसन्द न था।
बात आगे बढ़ी। रूपकुमारी के पाले हुए त्रिकालदर्शी शुकराज ने उसे रास्ता दिखाया। रूपकुमारी ने महामंत्री का प्रस्ताव टालने के लिये एक शर्त रखी, कि दुनिया का अचंभा जो भी ढूंढ कर लायेगा उसके साथ वह व्याह करेगी।
दोनों उम्मीदवारों ने शर्त मानली और अपने अपने ढंग से दुनिया का अचंभा ढूंढने के लिये निकल पड़े। उधर महामंत्री की चालबाज़ी तो शुरु थी ही। परंतु एक घटना में से दूसरी घटना हुई, जो कुमार दिलीप के लिये फलदायक साबित हुई।
युवराज को पता चल गया कि भानूमति के पास जादू की एक डिबिया है, जो सचमूच दुनिया का अचंभा है युवराज ने डिबिया प्राप्त करने के लिये कमर कसली पाया, खोया और फिर से पाया।
इस बीच में महामंत्री ने अपने पुत्र के साथ रूपकुमारी के ब्याह का दबाव तो दिया ही था, रूपकुमारी ने भी अब युवराज दिलीप की आशा छोड़ दी थी, और विक्रम के साथ ब्याह करने के लिये लाचार हो गई।
परन्तु अन्त में शुकराज की युक्ति फलीभूत हुई, युवराज दिलीप दुनिया का अचंभा लेकर वापस आ पहुंचा और दोनों प्रेमियों की इच्छा पुरी हुई।
परमात्मा, कभी कभी शुभ फल देने के लिये ही कुछ घटनाओं का निर्माण करता है, यदि मनुष्य का ध्येय शुभ है।
(From the official press booklet)